🎙️ ग़ज़ल का भावार्थ — मोहब्बत का भीगा हुआ रूप
"चमन में सुबह ये कहती थी हो कर चश्म-ए-तर शबनम
बहार-ए-बाग़ गो यूँ ही रही लेकिन किधर शबनम"
👉 सुबह की रौशनी में बाग़ तो खिला हुआ है, लेकिन जो शबनम रात भर रोती रही — वह अब कहाँ है? यह विरह, जुदाई और तड़प का बड़ा कोमल प्रतीक है।
"अरक़ की बूँद उस की ज़ुल्फ़ से रुख़्सार पर टपकी"
👉 पसीने या ओस की एक बूंद उसके गेसुओं से फिसल कर उसके गाल पर गिर गई। इश्क़ के उस नाज़ुक पल की सजीव कल्पना सामने आ जाती है।
"तअज्जुब की है जागह ये पड़ी ख़ुर्शीद पर शबनम"
👉 यह आश्चर्य की बात है कि तेज़ गर्मी वाले सूरज पर भी शबनम बैठ गई। जहाँ गर्मी होनी चाहिए वहाँ भी नमी का टिकना इश्क़ की तासीर की गहराई को दर्शाता है।
"हमें तो बाग़ तुझ बिन ख़ाना-ए-मातम नज़र आया
इधर गुल फाड़ते थे जैब, रोती थी उधर शबनम"
👉 बाग़ तो हरा-भरा है लेकिन महबूब के बिना जैसे मातम सा महसूस होता है। फूल अपने दामन फाड़ रहे हैं और ओस की बूंदें रो रही हैं।
"करे है कुछ से कुछ तासीर-ए-सोहबत साफ़ तबओं की
हुई आतिश से गुल की बैठते रश्क-ए-शरर शबनम"
👉 अच्छी संगत का असर अलग ही होता है। फूल की गर्मी से जलकर भी शबनम उस पर बैठती है, और चिंगारी भी उससे रश्क करती है।
"नहीं अस्बाब कुछ लाज़िम सुबुकसारों के उठने को
गई उड़ देखते अपने बग़ैर-अज़-बाल-ओ-पर शबनम"
👉 जो हल्के होते हैं उन्हें उड़ने के लिए किसी सहारे की ज़रूरत नहीं। शबनम भी बिना परों के उड़ गई।
"न समझा 'दर्द' हम ने भेद याँ की शादी ओ ग़म का
सहर ख़ंदाँ है, क्यूँ रोती है किस को याद कर शबनम"
👉 हम ये भेद कभी समझ ही नहीं पाए कि यहाँ खुशी और ग़म एक साथ कैसे होते हैं। सुबह तो मुस्कुरा रही है, लेकिन शबनम किसकी याद में रो रही है?
🎼 Full Lyrics:
चमन में सुब्ह ये कहती थी हो कर चश्म-ए-तर शबनम
बहार-ए-बाग़ गो यूँ ही रही लेकिन किधर शबनम
अरक़ की बूँद उस की ज़ुल्फ़ से रुख़्सार पर टपकी
तअज्जुब की है जागह ये पड़ी ख़ुर्शीद पर शबनम
हमें तो बाग़ तुझ बिन ख़ाना-ए-मातम नज़र आया
इधर गुल फाड़ते थे जैब, रोती थी उधर शबनम
करे है कुछ से कुछ तासीर-ए-सोहबत साफ़ तबओं की
हुई आतिश से गुल की बैठते रश्क-ए-शरर शबनम
नहीं अस्बाब कुछ लाज़िम सुबुकसारों के उठने को
गई उड़ देखते अपने बग़ैर-अज़-बाल-ओ-पर शबनम
न समझा 'दर्द' हम ने भेद याँ की शादी ओ ग़म का
सहर ख़ंदाँ है, क्यूँ रोती है किस को याद कर शबनम
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