Sunday, June 22, 2025

शबनम में भीगी मोहब्बत की दास्तान — ख़्वाजा मीर दर्द की ग़ज़ल

ग़ज़ल: "चमन में सुब्ह ये कहती थी हो कर चश्म-ए-तर शबनम"
शायर: ख़्वाजा मीर 'दर्द'
गायक-संगीतकार: शिशिर पारखी
एल्बम: Virasat – The Legacy of Legends (Times Music)

Portrait of Khwaja Meer Dard, renowned Urdu poet whose ghazal Chaman Mein Subh Ye Kehti Thi is composed by Shishir Parkhie.
क्लासिकल उर्दू शायरी में जब दिल की गहराइयों को छू लेने वाले शेरों की बात होती है, तो ख़्वाजा मीर 'दर्द' का नाम अपने आप सामने आता है। दिल्ली के इस सूफियाना मिज़ाज के शायर ने इश्क़, विरह और रूहानी एहसासों को इतने नाज़ुक और गहरे प्रतीकों में पिरोया कि हर शेर दिल में उतर जाता है।

इस ग़ज़ल में शबनम — यानी ओस की बूंदों — के माध्यम से विरह की पीड़ा को बयान किया गया है। सुबह की ठंडी फिज़ा में बिखरी ओस की बूंदें किसी के जुदाई में भीगे हुए आँसुओं की तरह जान पड़ती हैं। ग़ज़ल का हर शेर इस दर्द को और गहराई देता है।


🎙️ ग़ज़ल का भावार्थ — मोहब्बत का भीगा हुआ रूप

"चमन में सुबह ये कहती थी हो कर चश्म-ए-तर शबनम
बहार-ए-बाग़ गो यूँ ही रही लेकिन किधर शबनम"

👉 सुबह की रौशनी में बाग़ तो खिला हुआ है, लेकिन जो शबनम रात भर रोती रही — वह अब कहाँ है? यह विरह, जुदाई और तड़प का बड़ा कोमल प्रतीक है।

"अरक़ की बूँद उस की ज़ुल्फ़ से रुख़्सार पर टपकी"
👉 पसीने या ओस की एक बूंद उसके गेसुओं से फिसल कर उसके गाल पर गिर गई। इश्क़ के उस नाज़ुक पल की सजीव कल्पना सामने आ जाती है।

"तअज्जुब की है जागह ये पड़ी ख़ुर्शीद पर शबनम"
👉 यह आश्चर्य की बात है कि तेज़ गर्मी वाले सूरज पर भी शबनम बैठ गई। जहाँ गर्मी होनी चाहिए वहाँ भी नमी का टिकना इश्क़ की तासीर की गहराई को दर्शाता है।

"हमें तो बाग़ तुझ बिन ख़ाना-ए-मातम नज़र आया
इधर गुल फाड़ते थे जैब, रोती थी उधर शबनम"

👉 बाग़ तो हरा-भरा है लेकिन महबूब के बिना जैसे मातम सा महसूस होता है। फूल अपने दामन फाड़ रहे हैं और ओस की बूंदें रो रही हैं।

"करे है कुछ से कुछ तासीर-ए-सोहबत साफ़ तबओं की
हुई आतिश से गुल की बैठते रश्क-ए-शरर शबनम"

👉 अच्छी संगत का असर अलग ही होता है। फूल की गर्मी से जलकर भी शबनम उस पर बैठती है, और चिंगारी भी उससे रश्क करती है।

"नहीं अस्बाब कुछ लाज़िम सुबुकसारों के उठने को
गई उड़ देखते अपने बग़ैर-अज़-बाल-ओ-पर शबनम"

👉 जो हल्के होते हैं उन्हें उड़ने के लिए किसी सहारे की ज़रूरत नहीं। शबनम भी बिना परों के उड़ गई।

"न समझा 'दर्द' हम ने भेद याँ की शादी ओ ग़म का
सहर ख़ंदाँ है, क्यूँ रोती है किस को याद कर शबनम"

👉 हम ये भेद कभी समझ ही नहीं पाए कि यहाँ खुशी और ग़म एक साथ कैसे होते हैं। सुबह तो मुस्कुरा रही है, लेकिन शबनम किसकी याद में रो रही है?

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संगीतबद्ध करने का मेरा अनुभव

इस ग़ज़ल को मैंने अपने ऐल्बम Virasat – The Legacy of Legends में स्वरबद्ध और रिकॉर्ड किया है।

क्लासिकल बहर, गहरी संवेदना और ख़ूबसूरत imagery को संगीत में पिरोना मेरे लिए एक आत्मिक यात्रा जैसा रहा। शब्दों के भीतर छुपे दर्द को सुरों में ढालना कभी आसान नहीं होता, लेकिन यही चुनौती इस ग़ज़ल को गाते समय मुझे खास अनुभव देती है।


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Virasat – The Legacy of Legends

Chaman Mein Subh Ye Kehti Thi ghazal from Virasat album, composed and sung by Shishir Parkhie, based on Khwaja Meer Dard’s poetry.



Virasat – The Legacy of Legends मेरे दिल के बेहद करीब एक प्रोजेक्ट है। इसमें मैंने उर्दू शायरी के उन रचनाकारों की ग़ज़लों को चुना है, जिन्हें कम सुना गया लेकिन जिनकी शायरी अपने आप में बेमिसाल है।

ख़्वाजा मीर दर्द, असगर गोंडवी, ब्रिज नारायण चकबस्त, क़ुली क़ुतुब शाह, और कई अन्य शायरों की ग़ज़लों को नए संगीतात्मक स्वरूप में प्रस्तुत करना मेरा एक विनम्र प्रयास है, ताकि इस विरासत को आज की पीढ़ी भी महसूस कर सके।


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अंत में...

"शबनम की भीगी बूंदों में छुपा इश्क़ का एहसास
सुबह की रौशनी में भी कभी कभी आँसू टिमटिमाते हैं।"

उम्मीद है इस ग़ज़ल को सुनते हुए आपको भी वही भीगापन महसूस होगा जो इसे गाते समय मेरे सुरों में बस जाता है।

🎶 Immerse yourself in Khwaja Meer Dard’s timeless poetry, composed & sung by me. Listen now on Spotify, Apple Music, YouTube & more.

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🎼 Full Lyrics:

चमन में सुब्ह ये कहती थी हो कर चश्म-ए-तर शबनम
बहार-ए-बाग़ गो यूँ ही रही लेकिन किधर शबनम

अरक़ की बूँद उस की ज़ुल्फ़ से रुख़्सार पर टपकी
तअज्जुब की है जागह ये पड़ी ख़ुर्शीद पर शबनम

हमें तो बाग़ तुझ बिन ख़ाना-ए-मातम नज़र आया
इधर गुल फाड़ते थे जैब, रोती थी उधर शबनम

करे है कुछ से कुछ तासीर-ए-सोहबत साफ़ तबओं की
हुई आतिश से गुल की बैठते रश्क-ए-शरर शबनम

नहीं अस्बाब कुछ लाज़िम सुबुकसारों के उठने को
गई उड़ देखते अपने बग़ैर-अज़-बाल-ओ-पर शबनम

न समझा 'दर्द' हम ने भेद याँ की शादी ओ ग़म का
सहर ख़ंदाँ है, क्यूँ रोती है किस को याद कर शबनम




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